तर्ज;-तुम्ही मेरे मन्दिर तुम्ही मेरी पूजा
कृपा की न होती,जो आदत तुम्हारी।
न जाने गति क्या, होती हमारी।
न सत्संग सुहाते,न किर्तन सुहाते
कुमारग पे हमको,कई लेके जाते
गुनाहों के हम तो,बनते पुजारी।
दिनों दिन हमारी,आदत बिगङती
कैसे हमारी ये, हालत सुधरती
उलझती ही जाती, समस्याएं सारी।
दया करके तुमने,हमें अपनाया
सत्संग भजन का,चस्का लगाया
हम पे तुम्हारा,कर्जा है भारी।
कृपा हमपे रखना,गुरु पुज्यवर हो
प्रभु की डगर के,तुम्ही हमसफर हो
चरणों में “बिन्नू”,जाये बलिहारी।
2 thoughts on “कृपा की न होती, जो आदत तुम्हारी – गुरु वंदना”